(एक)
आजकल आठों पहर यूँ
खेत की मेड़ पर उदास क्यों बैठे रहते हो जमनालाल
क्या तुम नहीं जानते जमनालाल
कि तुम्हारे इसी खेत की मेड़ को चीरते हुए
निकलने को बेताब खड़ा है राजमार्ग
क्या तुम बिसर गए हो जमनालाल
‘बेटी बाप की और धरती राज की होती है’
और राज को भा गए है तुम्हारे खेत
इसलिए एक बार फिर सोच लो जमनालाल
राज के काज में टाँग अड़ाओगे तो
छलनी कर दिए जाओगे गोलियों से
शेष बचे रह गए जंगलों की ओर
भागना पड़ेगा तुम्हें और तुम्हारे परिवार को
सुनो! जमनालाल बहुत उगा ली तुमने
गन्ने की मिठास
बहुत कात लिया अपने हिस्से का कपास
बहुत नखरे दिखा लिए तुम्हारे खेत के कांदों ने
अब राज खड़ा करना चाहता है
तुम्हारे खेत के आस-पास कंकरीट के जंगल
जो दे रहे है उसे बख्शीस समझकर रख लो
जमनालाल
वरना तुम्हारी कौम आत्महत्याओं के अलावा
कर भी क्या रही है आजकल/
लो जमनालाल गिन लो रुपये
खेत की मेड़ पर ही
लक्ष्मी के ठोकर मारना ठीक नहीं है जमनालाल।
(दो)
उठो! जमनालाल
अब यूँ उदास खेत की मेड़ पर
बैठे रहने से
कोई फायदा नहीं होने वाला।
तुम्हें और तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को
एक न एक दिन तो समझना ही था
जमीन की व्याकरण में
अपने और राज के मुहावरों का अंतर।
तुम्हारी जमीन क्या छिनी जमनालाल
सारे जनता के हिमायती सफेदपोशों ने
डाल दिया है डेरा गाँव की हथाई पर
बुलंद हो रहे है नारे -
‘हाथी घोड़ा पालकी, जमीन जमनालाल की’।
जरा कान तो लगाओ जमनालाल
गाँव की दिशा में
जितने बल्ब नहीं टँगे अब तक घरों में
दीवार के सहारे
उससे कई गुना लाल-नीली बत्तियों की
जगमगाहट पसर गई है
गली-मोहल्लों के मुहानों पर।
और गाँव की औरतें घूँघट की ओट में
तलाश रही है,
उम्मीद का नया चेहरा।
(तीन)
तमाम कोशिशों के बावजूद
जमनालाल
खेत की मेड़ से नहीं हुआ टस से मस
सिक्कों की खनक से नहीं खुले
उसके जूने जहन के दरीचे।
दूर से आ रही
बंदूकों की आवाजों में खो गई
उसकी आखिरी चीख
पैरों को दोनों हाथों से बाँधे हुए
रह गया दुहरा का दुहरा।
एक दिन लाल-नीली बत्तियों का
हुजूम भी लौट गया एक के बाद एक
राजधानी की ओर
दीवारों के सहारे टँगे बल्ब हो गए फ्यूज।
इधर राजमार्ग पर दौड़ते
वाहनों की चिल्ल-पों
चकाचौंध में गुम हो जाने को तैयार खड़े थे
भट्टा-पारसौल, टप्पन, नंदी ग्राम, सींगूर।
और न जाने कितने गाँवों के जमनालालों को
रह जाना है अभी
खेतों की मेड़ों पर दुहरा का दुहरा।